ज़िन्दगी मेरी रेत सी, खुदही की हाथ में ना आती हैं,
जितनी भी सोंचू समझाने की, उतनी ये इठलाती हैं।
फिरता जो मन मौजी बन के, भटक जाऊँ कब दर से अपने ,
हवा का झोका बदल देता रेगिस्तान के हर नक्क्षे जैसे।
डरता नहीं अकेलेपन से, न डरता मैं हार से,
हौंसलों पे हथोड़ा रहता, सफर में कंधे पे रखने वाले हाथ से।।
धरा पे हो पसरे तो बंजड़ रेगिस्तान कहलाती है,
गर गमले में जा पड़े तो, अमीरी की उम्मीद बन जाती हैं।
ये रेत भी कभी समय का तक़ाज़ा बताती है और कभी हैसियत,
सबक जब सिखाये भटके लोगों को, तो गला मौत तक सूखा जाती हैं।
दूर से जो मोहित कर दे वही रेगिस्तान मृगमरीचिका का मायाजाल हैं
करे जो इज़्ज़त, उसे ज़िन्दगी भर की अज़ीम यादों को इसतक़्बाल हैं।
ज़िन्दगी मेरी रेत सी, खुदही की हाथ में ना आती हैं।।
समय का तकाज़ा भी रेत से, अँगारो में ठंडक सी रेत
भुला के ज़ख्म अत्तीत के जैसे मिली हो नयी ज़िंदगी की भेंट।
लोग तो बेतहाशा शैर को आए मेरी रेगिस्तान सी ज़िन्दगी में
हुए शुमार तो बस वो इसमें ज़िन्दगी रही हो जिनकी अखंड-अभेद।
मैं तो रहा बंजड़ वैसे, तू ठहरी बारिश का पानी
जो मैं भींग के भी तुझमें, मेरी हकीकत में मुझे वापिस आनी हैं।
ज़िन्दगी मेरी रेत सी, खुदही की हाथ में ना आती हैं।।
समय का तकाज़ा भी रेत से, अँगारो में ठंडक सी रेत
भुला के ज़ख्म अत्तीत के जैसे मिली हो नयी ज़िंदगी की भेंट।
लोग तो बेतहाशा शैर को आए मेरी रेगिस्तान सी ज़िन्दगी में
हुए शुमार तो बस वो इसमें ज़िन्दगी रही हो जिनकी अखंड-अभेद।
मैं तो रहा बंजड़ वैसे, तू ठहरी बारिश का पानी
जो मैं भींग के भी तुझमें, मेरी हकीकत में मुझे वापिस आनी हैं।
ज़िन्दगी मेरी रेत सी, खुदही की हाथ में ना आती हैं।।
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