आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।
पींजड़े में बंद करते थे जो, आज खुद हैं पिंजड़े में खड़ा।
इस तरफ़ हो के मैं जो दूसरों की तक़लीफो में अपनी खुशियाँ ढूंढता था
काल चक्र की बेचैनी ऐसी हुईं की आज खुद ही हु उस तरफ पड़ा।
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।
हमने तो अशंक अनगिनत घर उजाड़े होंगे
जीव-जन्तु , पशुः-परिन्दों के खाल उधेरें होंगे
कुदरत से ये जो बेमतलब उलझते रहते है हम,
अनकही प्रतिस्प्रधा में खुद को खुदा समझने की खता करते जा रहे है हम,
आँखें मुंदने में जो महारथी हासिल कर रखी है हमने जिसकी भुगत रहे ये सज़ा
पींजड़े में बंद करते थे जो, आज खुद हैं पिंजड़े में खड़ा।
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।

चंद लम्हे दुनिया में रह के, दुनिया से दूर क्या हुए, कुदरत ने -
फिर से लायक़ समझा अपनी इंद्रधनुषी रूप का साक्षात कराना,
बिन सावन मोरों का थिड़कना, सागर के सेहज़ादो को तटों पे आना।
पंछियों का दशकों पहले जैसे चेचहाना, आसमानो पे बदलो की तरह छा जाना
इस युग में भी हिमालय की छोटी की पिंड को दर्शन का सौभाग्य मिलना
काफी हैं कुदरत की मेहरबानियों को समझना और कुछ सीख़ लेना
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।
विपदा देखे न कोई दौलत-शौहरत, न आषाढ़ ओढ़ाए चुन के धुप
अन्न जाये सबकी थाली और ना देखे हरियाली कोई रंग-रूप।
ये सब भाए मानुष को, जो हज़ारों माप दंड पे छान-छान के करे हर काम
जरुरत और मतलब के तकाज़े पे तौल के रिश्तो के रखे नाम।
त्रासदी में जो दे साथ उतनी तो इंसानियत कुछ लोगों से उम्मीद होती है
किसने कहा सफेद कपडे सिर्फ कफ़न के होते है! कर्ज़ हैं अब इनका और देश के रक्षक के हम पे
सबका साथ रहे, हो सबका विकास। चूके ना हम अबकी बार, सम्मान सबका करे है फल सफ़ा
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।
इस तरफ़ हो के मैं जो दूसरों की तक़लीफो में अपनी खुशियाँ ढूंढता था
काल चक्र की बेचैनी ऐसी हुईं की आज खुद ही हु उस तरफ पड़ा।
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।
हमने तो अशंक अनगिनत घर उजाड़े होंगे
जीव-जन्तु , पशुः-परिन्दों के खाल उधेरें होंगे
कुदरत से ये जो बेमतलब उलझते रहते है हम,
अनकही प्रतिस्प्रधा में खुद को खुदा समझने की खता करते जा रहे है हम,
आँखें मुंदने में जो महारथी हासिल कर रखी है हमने जिसकी भुगत रहे ये सज़ा
पींजड़े में बंद करते थे जो, आज खुद हैं पिंजड़े में खड़ा।
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।

चंद लम्हे दुनिया में रह के, दुनिया से दूर क्या हुए, कुदरत ने -
फिर से लायक़ समझा अपनी इंद्रधनुषी रूप का साक्षात कराना,
बिन सावन मोरों का थिड़कना, सागर के सेहज़ादो को तटों पे आना।
पंछियों का दशकों पहले जैसे चेचहाना, आसमानो पे बदलो की तरह छा जाना
इस युग में भी हिमालय की छोटी की पिंड को दर्शन का सौभाग्य मिलना
काफी हैं कुदरत की मेहरबानियों को समझना और कुछ सीख़ लेना
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।

अन्न जाये सबकी थाली और ना देखे हरियाली कोई रंग-रूप।
ये सब भाए मानुष को, जो हज़ारों माप दंड पे छान-छान के करे हर काम
जरुरत और मतलब के तकाज़े पे तौल के रिश्तो के रखे नाम।
त्रासदी में जो दे साथ उतनी तो इंसानियत कुछ लोगों से उम्मीद होती है
किसने कहा सफेद कपडे सिर्फ कफ़न के होते है! कर्ज़ हैं अब इनका और देश के रक्षक के हम पे
सबका साथ रहे, हो सबका विकास। चूके ना हम अबकी बार, सम्मान सबका करे है फल सफ़ा
आ देख ले आईने में खुद को एक दफ़ा।।